कौन थे RSS के संस्थापक Dr. Hedgewar - संक्षिप्त जीवनी? #संघ_के_१००_वर्ष
11 Sep 2022 | 414
Aman Sah answered this.
11 Sep 2022
मोहिते का बाड़ा
नागपुर के महाल क्षेत्र में मोहिते का बाड़ा था। कभी वह भव्य रहा होगा परन्तु अब जर्जर अवस्था में था। छतें गिर गई थीं। दीवारें ढह चुकी थीं। चारों ओर टूटा–फूटा परकोटा था। भीतर जहाँ-तहाँ मिट्टी और कूड़े के ढेर पड़े थे। उसे भूत–निवास जान कर दिनदहाड़े भी वहाँ कोई जाने का साहस नहीं करता था।
संघ–निर्माता केशव बलिराम हेडगेवार ने यहीं पर संघ को शाखारूप प्रदान किया। उन्होंने वहां के कंकड़ पत्थर बिनकर, खेलने योग्य मैदान बनाया। यहीं पर वे युवकों के साथ खेलते और विचार विनियम करते। धीरे-धीरे यहाँ पर शाखा लगने लगी। यहीं पर उन्होंने सब के साथ सैनिक समता की। शाखा समाप्ति पर वे यहीं पर गोल बांध कर बैठते थे और स्वयंसेवक उनकी बातें एकाग्रतापूर्वक सुनते थे। ध्वस्त मकान को राष्ट्रदेवता की उपासना का पवित्र मंदिर बनाना है डाक्टरजी के जीवन का सारा है। मोहिते के बाड़े जैसी ही तब भारतवर्ष की स्थिति थी। सारा देश खण्डहर हो चुका था। चोर–डाकुओं ने उस पर कब्जा कर लिया। था सामाजिक, राष्ट्रीय मूल्यों का कोई स्थान न था व पूरा देश दास्ता की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। देश के इस भयावह चित्र को बदलना ही डाक्टरजी का जीवनध्येय था।
संघ की शाखा

निर्धारित समय पर युवकगण मोहिते के बाड़े में आने लगे। साफ—सुथरा मैदान उन्हें आकर्षित कर रहा था‚ भीतर कदम रखते ही सब के मुख से यही उद्गार निकलते– ‘‘बड़ा सुंदर स्थान है’’ ,...... ‘‘ कमाल है डाक्टरजी का, कैसे उन्होंने यह स्थान ढूंढ निकाला?’’ ‘‘.....हम समझते थे, यहाँ बहुत कूड़ा करकट होगा....’’ ‘‘किसने यहाँ झाड़ू लगाया है और पानी छिड़का है ?......’’
यह सब किसने किया ? यह न कोई जानता था, न बोलता था, परन्तु सब लोग समझ गए कि यह डाक्टरजी का ही काम है। फिर सब डाक्टरजी के आसपास बैठ जाते। हँसी–मजाक, विचार मंथन आदि होने के पश्चात सभी अपने–अपने घर को चले जाते। यह एक दिनचर्या बन गई थी।
इस छोटी सी परन्तु महत्वपूर्ण बात में संघ की कार्यपद्धति का सार आ गया है। ‘ढिंढोरा मत पीटो मूक सेवाभाव से किया हुआ काम, शाब्दिक प्रचार की अपेक्षा अधिक प्रभाव डालता है। ’ धीरे-धीरे अधिकांश स्वयंसेवक समय से पूर्व ही आकर मैदान साफ कर, पानी छिड़कने लगे। फिर शाखा प्रारंभ होती और भगवा ध्वज शान से फहराता।
यह सब कैसे हुआ ? स्वछन्द युवक डाक्टरजी के निस्सीम भक्त कैसे बने ? डाक्टरजी की वाणी में इतना प्रभाव कहाँ से आया ? यह उनके तपस्यामय पूर्व जीवन का फल था।
जन्म तथा वंश परिचय
डॉ.हेडगेवार का जन्म 1 अप्रैल, 1889 को नागपुर (महाराष्ट्र) में हुआ। यह शक संवत् 1911 का पहला दिन था – भारतीय संदर्भ में अतिशुभ एवं महत्वपूर्ण दिन। बालक का नाम केशव रखा गया। हेडगेवार परिवार मूलत: आन्ध्र का था। ये लोग गोदावरी हरिद्रा तथा वनजरा के संगम पर बसे कंदकुर्ती गांव में रहते थे।
पिता बलिरामपन्त हेडगेवार, वेदविद्या के ज्ञाता, कर्मनिष्ठा और परोपकारी थे। माता रेवतीबाई सुशील और धार्मिक वृत्ति की महिला थी। उन्होंने तीन पुत्रों तथा तीन कन्याओं को जन्म दिया। पुत्रों में बड़े थे महादेव, मंझले सीताराम और छोटे केशव।
संयोगवश, हजारों वर्ष पूर्व इसी दिन लंका विजय के उपरान्त प्रभु रामचन्द्र जी ने अयोध्या में प्रवेश किया था। इसी दिन राजा शालिवाहन ने मिट्टी के घुड़सवारों में प्राण फूँके और उनके द्वारा आक्रामक शकों को मार भगाया।
बाल्यकाल
एक बार पिताजी ने केशव के मुख से रामरक्षा स्त्रोत सुना। वे बहुत चकित हुए। उसका उच्चारण स्पष्ट था, वाणी शुद्ध और विश्वासपूर्ण थी। उन्होंने पूछा, “बेटा यह सब तुझे किसने सिखाया ?”
केशव ने कहा, “मुझे यह सुन–सुनकर ही कण्ठस्थ हो गया।”
पिताजी अपने लाडले पुत्र की बुद्धिमत्ता देखकर प्रसन्न हुए। वे उसे स्त्रोत, सुभाषित, भजन आदि सिखाने लगे। उसकी ग्रहणशक्ति तेज थी। माता रेवतीबाई उसे धार्मिक कहानियाँ सुनाती थीं। उसके बड़े भाई और चाचा शिवाजी की कथाएँ सुनाते थे। केशव उन कथा– कहानियों को सुनते हुए आनंदविभोर हो जाता था।
राजा भोंसले की कोठी पर अथवा उनकी सवारी के सामने जब वह भगवा ध्वज देखता था, तब उसका हृदय गर्व से भर जाता था। पर एक दिन उसे ज्ञात हुआ कि अपने देश पर भोंसले का नहीं, बल्कि अंग्रेजों का शासन है। उसे बड़ा दुख हुआ। एक दिन उसने सीताबर्डी किले पर अंग्रेजों का झंडा देखा। उसे बड़ा क्रोध आया। उसने अपने मित्रों को जुटाया और योजना बनाई। “हम सुरंग बनाकर गुप्त मार्ग से एकाएक सीताबर्डी किले में पहुँचेंगे और शत्रु का झंडा उतारकर, भगवा झंडा फहराएंगे।”
सभी ने अपनी सहमति दी। वझे गुरुजी के सुनसान मकान में सुरंग खोदने का काम प्रारंभ हुआ। गुरुजी जब आए तो यह सब देखकर चकित हुए। उन्होंने पूछा “यह सब क्या हो रहा है ?” केशव ने उन्हें संपूर्ण योजना सुनाई। तब खूब हँसे। उन्होंने बच्चों की सहारना की परन्तु उन्हें यह बोध कराया कि यह कार्य कितना असम्भव–सा है।
अंग्रेज हमारे शत्रु हैं
वह 1897 का दिन था। अंग्रेज लोग देशभर में बड़ा समारोह मना रहे थे। स्कूलों में मिठाइयाँ बाँटी गई सब बच्चे खुश हुए। मिठाई की, अंग्रेजों की कथा विक्टोरिया रानी की स्तुति करने लगे। यह सब देख केशव से नहीं रहा गया। वह व्यथित था उसने मिठाई को कूड़ेदान में फैंकते हुए का “अंग्रेजों और उनकी रानी, सब हमारी शत्रु हैं। मिठाई खिलाकर में गुलामी की जंजीरों और अधिक करना चाहते हैं।”
सन् 1901 में एडवर्ड सप्तम इंग्लैंड का राजा बना। अंग्रेजों ने उसके राज्यारोहन का उत्सव मनाया। हजारों लोग उसे देखने गये। मोहल्ले के सब बालक उसे देखने गये। परन्तु केशव नहीं गया। उसने कहा– “यह हमारे शत्रुओं का राजा है। उस के राज्यारोहण की खुशी हमें क्यों हो ? इस अवसर पर खुशियाँ मनाना, लज्जत की बात है।”
माता–पिता की मृत्यु
सन 1902 में नागपुर में प्लेग फैला, घर–घर में लोग मरने लगे। यह ऐसा विचित्र तथा भयानक रोग था जिस पर कोई भी दवा असर नहीं करती थी। जब किसी के बीमार होने की या मरने की खबर पहुँचती, तो बलीरामपंत वहाँ जाते और आवश्यक सहायता–सामग्री पहुँचाते।
थोड़े ही दिनों में प्लेग ने उन पर भी आक्रमण किया। उनकी पत्नी भी बीमार हो गई। दुर्भाग्य से दोनों ने एक ही दिन इस लोक से प्रस्थान किया। उस समय केशव की आयु केवल 11 वर्ष की थी।
वंदेमातरम्
अंग्रेज बहुत कुटिल व धूर्त शासक थे। भारत पर अपना राज्य चिरकाल तक बनाये रखने के लिए उन्होंने मुख्यतः दो चालें चली। एक, भारतीयों को मानसिक रूप से दास बनाना–इसके लिए उन्होंने अंग्रेजों पद्धति के विद्यालय खोले। दूसरा, विभिन्न समुदायों में फूट डालने हेतु आपसी झगड़े, विवाद करवाना। उन्होंने जाति, पंथ, भाषा, आदि के आधार पर भेदभाव के सभी हथकन्डे अपनाए। उसी सूत्र को लेकर लार्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया। पूरे देश ने इस विभाजन का विरोध किया। लोगों ने कहा– “भारत हमारी माँ है। इस का विभाजन हम नहीं होने देंगे।” बंकिमचंद्र का गीत देशभक्ति का मंत्र बन गया। हर सभा में वह गाया जाने लगा।
केशव ने उस सम्पूर्ण गीत को कण्ठस्थ कर लिया। वन्देमातरम् की भावना से केशव का हृदय पूर्णरूप से ओतप्रोत हो गया।
दिसंबर 1906 में कलकत्ता में राष्ट्रीय सभा का अधिवेशन संपन्न हुआ। अधिवेशन से लौटते समय लोकमान्य तिलक नागपुर पधारे। उन के दर्शन पाकर तथा उनका भाषण सुनकर केशव ने देशसेवा को अपना जीवन व्रत बना लिया। बड़े भाई महादेवराव को यह सब नहीं भाता था। वे कहते थे, “यह सब बड़े लोगों का काम है। हमें इस झमेले में नहीं पड़ना चाहिए।”
सीमोल्लंघन
छुट्टियां में या तीज–त्यौहार पर केशव अपने चाचा आबाजी के पास जाता था। वह रामपायली में रहते थे। सन् 1907 के अक्टूबर माह में दशहरे के पूर्व पर केशव रामपायली गया।
मित्रों को जोड़ना, उनसे मेल–जोल रखना केशव का सहज स्वभाव था। अब तो उन्हें दिखाने, बाँटने के लिए अपने पास पूँजी इकठ्ठी हो गई थी। यह पूंजी थी– राष्ट्रप्रेम। उसने तिलकजी को देखा और सुना था। हृदय में संजोई हुई देशभक्ति की भावना को वह अन्य साथियों के हृदय में भी रोपना चाहता था।
महाराष्ट्र में प्राचीन काल से दशहरा मनाने की एक विशेष प्रथा प्रचलित थी। उस दिन घर-घर में मीठा भोजन बनता है। शाम को सब लोग नए वस्त्र पहनकर निकलते हैं और गांव की सीमा पार कर ‘सीमोल्लंघन’ करते हैं। शमी और आपका अर्थात् अश्मंतक वृक्ष के पत्तों को उस दिन सब लोग सोना कहते हैं। मानो सचमुच ही रावण को मारकर, लंका से सोना लूटकर लाया गया हो। इस प्रकार से लोग घर–घर जाते हैं, बड़ों के पैर छूते हैं, उन्हें सोना देते हैं और मिठाई खाते हैं।
उस दिन रामपायली में जब ‘रावण दहन’ हुआ तब केशव जोर से गरजा— “वंदेमातरम्”। सब ने कहा, “वंदेमातरम्!”
केशव पास के एक टिले पर जा खड़ा हुआ। उसने सबको संबोधित करते हुए कहा— “भाइयों, आज हम आलसी, डरपोक और स्वार्थी बन गए हैं। उस सीमा को लांघना ही सच्चा सीमोल्ल्घंन है। अन्तःकरण में वीरवृत्ति जगाना ही वास्तविक शमीपूजन है। रावण को जलाने का अभिप्राय है— अन्याय, तानाशाही, जुल्मजबरदस्ती तथा पराधीनता के बंधनों का नाश करना। आइये, आज के पवित्र दिन हम इन विचारों का सोना वितरित करें। यह धर्मकार्य है। बोलिये, वंदेमातरम! भारत माता की जय!”
भारतमाता के जयकारों में रामपायली का आकाश गूँज उठा

जुल्म का विरोध
गाँव–गाँव और नगर–नगर में लोग वंदेमातरम् कहने लगे। देशभर में राष्ट्रप्रेम की लहर दौड़ गई। अंग्रेज बौखलाये। वे अन्यायपूर्ण तरीकों से लोगों को दबाने लगे। वंदेमातरम् गीत गाना एक अपराध घोषित हो गया। उस समय, 14 वर्ष की आयु का केशव नागपुर के नील सिटी हाईस्कूल में पढ़ता था। उसने इस दुष्टता का विरोध करने का निश्चय किया। सभी मित्रों को जुटा कर उसने एक योजना बनाई। प्रत्येक वर्ग के विद्यार्थी के पास बात चुपचाप पहुँच गई। सब ने संकल्प के साथ कहा, “हाँ, हम ऐसा ही करेंगे।”
शालानिरीक्षक अधिकारी नित्य की जांच के लिये विद्यालय में आने वाले थे। विद्यार्थियों ने उनके स्वागत की अगूठी योजना बनाई। उनके कक्ष में पदार्पण करते ही, सब विद्यार्थी एक साथ गरज उठे, “वंदेमातरम्!” हर कक्ष में यही हुआ। पाठशाला का समूचा वातावरण वंदेमातरम में रम गया था। निरीक्षण कार्य ठप हो गया। अधिकारी क्रोध से तमतमा उठे। वे मुख्याध्यापक पर बरस पड़े– “यह कैसी बगावत हो रही है ? कौन है इसके पीछे ? सब को कड़ी सजा दो।”
मुख्यअध्यापक ने विद्यार्थियों को कड़ी डाँट पिलाई। शिक्षकों ने विद्यार्थियों को मारा, पीटा, डराया, धमकाया, पुचकराया, ललचाया और बारबार पूछा, “इसके मूल में कौन है, बताओ। ” किसी ने भी केशव का नाम नहीं बताया। ‘वंदेमातरम’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाते हुए विद्यार्थी अपने–अपने घर चले गए।
अंत में, यह पता चला ही गया कि यह काम केशव ने किया है। बहुत समझाने पर भी केशव ने माफी नहीं माँगी। उसने कहा, “जो शासन अपनी माँ को प्रणाम नहीं करने देता, वह अन्यायी है। उसे उखाड़ फैंकना चाहिये।” केशव को विद्यालय से निकाल दिया गया।
धमाका
केशव अपने चाचा के पास रामपायली चला गया। एक बार एक सज्जन उसे समझाने लगें, “पढ़ाई पूरी करो, कुछ बड़े और समझदार हो जाओ, तब देशभक्ति करना।”
केशव ने उनसे पूछा, “आप पढ़े-लिखे, बड़े और समझदार हैं। आप देशभक्ति के कितने काम करते हैं ?.... और पढ़ूँगा कहां ? अंग्रेजों के चलाये विद्यालयों में ? वे तो गुलामी के कारखाने हैं। जहां पढ़ना पाप है।”
केशव ने उग्र विचारों को सुनकर फिर किसी ने भी उसे समझाना का साहस नहीं किया।
छोटे से गांव रामपायली में एक बड़ा तहलका हुआ। मध्य रात्रि में किसी ने पुलिस चौकी पर बम फैंका था। दीवार के पास किलें, नारियल की खपचियाँ आदि सामान पड़ा मिला। सरगर्मी के साथ तलाशी होने लगी। अबाजी हेडगेवार ने सब ताड़ लिया। उन्होंने केशव को चुपके से नागपुर भेज दिया।
विद्यागृह में
केशव नागपुर पहुँचा परन्तु घर नहीं गया। भाईसाहब के क्रोध की उसे कल्पना थी। वह डक्टर मुंजे के पास पहुंचा। केशव से उनका विशेष स्नेह था। उन्होंने परिचयपत्र देकर केशव को यवतमाल भेजा। वहाँ तपस्वी बाबासाहब परांजपे विद्यागृह चलाते थे केशव विद्यागृह में भर्ती हुआ। बापूजी आणे के घर उसकी भोजन व्यवस्था हुई।
यवतमाल नगर उन दिनों देशभक्तों का महत्वपूर्ण केन्द्र था। बापूजी अणे तिलक जी के निष्ठावान अनुयायी थे। बाबासाहब परांजपे महान् त्यागी, स्वाभिमानी एवम् सेवाव्रती थे। अपने जैसे ध्येयवादी तथा उच्च विद्या प्राप्त युवकों को उन्होंने वहां जुटाया था। वे सब बिना वेतन लिये पढ़ाते थे। केशव को वह स्थान बहुत प्रिय लगा। वह अपने शारीरिक, मानसिक तथा बौधिक विकास में तन–मन से प्रयत्नशील हुआ। सुबह तड़के उठ कर वह दंड, बैठक, मलखंव, कुश्ती आदि का व्यायाम करता था। फिर वह चार-पांच किलोमीटर की दौड़ लगाता था। तिलकजी का ‘केसरी’ तथा शिवराम महादेव का ‘काल’ समाचारपत्र पर नियम से पढ़ता था।
अच्छे कार्य करने में भी कितने संकट आ सकते हैं, इसका अनुभव उसने वहाँ प्राप्त किया। बाबासाहब परांजपे का वह विद्यालय अंग्रेजों की आंखों में बहुत खटकता था। उन्होंने परांजपे जी पर भाषण, लेखन, संचार सम्बन्धी प्रतिबन्ध थोपे। विद्यागृह पर बार-बार पुलिस के छापे पड़ने लगे। उसका भोजन पानी तथा आवश्यकता सहायता व्यवस्था आदि की आपूर्ति बन्द कर दी गई। अन्त में विद्यगृह बंद हो गया।
वहाँ के शिक्षकों ने केशव की पूरी सहायता की। उन्होंने उसे पुणे भेजा। उसने शालान्त परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की।
जहां चाह वहां राह
केशव का शरीर ऊँचा, सुगठित व बलवान था। उसका अध्ययन व्यापक और विचार शक्ति पैनी थी। यवतमाल तथा पुणे में उसका बड़े नेताओं से संपर्क हुआ। अब छोटे–बड़े सभी उसका आदर करते थे। सब उसे केशवराव कहने लगे।
केशवराव ने अपने मन में तो बातें ठान ली थीं। एक तो उन्हें बंगाल जाना था। उस भूमि को वे निकट से देखना चाहते थे। वहाँ के तेजस्वी क्रांतिकारी युवकों के साथ वे काम करना चाहते थे। दूसरी बात, वे आगे पढ़ना चाहते थे। विशेषता: डाक्टर बनने की उनकी इच्छा थी। इस व्यवसाय में जनसेवा प्रतिष्ठा तथा अर्थप्राप्ति, तीनों का समन्वय था।
परंतु उनकी आर्थिक स्थिति इसमें बहुत बड़ी बाधा थी। बड़े भाई साहब के पास न पैसा था और ना सहानुभूति थी। उन्होंने केशवराव को डांट–फटकार कर सुनाई और नौकरी करने का परामर्श दिया। वे डाक्टर मुंजे के पास पहुँचे। उन्होंने उसे सब प्रकार का आश्वासन दिया।
केशवराव नागपुर में एक पाठशाला में अध्ययन कार्य करने लगे। विद्यार्थियों के घर जाकर पढ़ाना भी उन्होंने प्रारंभ किया। वे अपनी आमदनी का कुछ भाग घर देकर, कुछ आगे की पढ़ाई के लिए जोड़ने लगे।
डाक्टर मुंजे ने कोलकत्ता में अपने मित्रों को पत्र लिखे थे। उनके अनुकूल उत्तर आ गये एक दिन डाक्टर मुंजे से परिचयपत्र लेकर केशवराव कोलकत्ता चले गये।
बंग भूमि
प्रसन्नचित से केशवराव कोलकत्ता पहुँचे। कोलकत्ता उनकी दृष्टि में केवल महानगरी नहीं थी। वह आत्मबलिदान की वेदी थी। वहाँ के युवक मातृभूमि को विदेशी शासन से मुक्त करना चाहते थे। उन्होंने बंगभूमि की धूलि अपने माथे पर लगाई। क्योंकि इस भूमि पर चैतन्य महाप्रभु धूमे, झूमे, नाचे थे। वहाँ का हर बालक और युवक महिषासुरमर्दिनी काली माता का उपासक था।
केशवराव जी भोजन, निवास आदि की व्यवस्था उत्तम हो गई। इसके दो कारण थे। एक तो वे ऐसे मामलों में उदासीन रहते थे। दूसरा यह कि उनका व्यवहार इतना आत्मीय व मिलनसार था कि वे हर किसी का हृदय शीघ्र जीत लेते थे। नी.स. मोहरीर नारायणराव सावरकर, अण्णसाहेब खापर्डे, शंकरराव नाईक आदि युवकों ने केशवराव को अपना भाई समझकर, सुख सुविधाओं प्रदान कीं।
अल्प समय में केशवराव बंगाल बोलना सीख गये। नलिनी किशोर गुह, अमूल्यरत्न घोष, प्रतुलचंद गांगुली, श्यामसुंदर चक्रवर्ती, विपिनचंद्र पाल आदि गणमान्य बंगाली सज्जनों के घर वे जाने–आने। लगे वे इनके घर के सदस्य बन गये। पंजाबी वसतिगृह में जाते-जाते उन्होंने वहाँ के युवकों से मित्रता की।
बाढ़ पीड़ित की सेवा में रामकृष्ण आश्रम द्वारा चलाई गई योजनाओं में उन्होंने महत्वपूर्ण कार्य किया। सुभाषचंद्र बोस की स्वदेशी प्रदर्शनियों में वे स्वयंसेवक बनकर दर्शकों का मार्गदर्शन करते थे।
केशवराव ने प्रतिज्ञाबद्ध होकर क्रांतिकारी दल में प्रवेश किया। वे अनुशीलन समिति के सदस्य बने।
आनंदमय जीवन
एक दिन मेडिकल कॉलेज के प्राध्यापक अनुपस्थिति थे। कक्षा में विद्यार्थी अपनी रूचि के अनुसार विविध कार्यों में मग्न थे। अमूल्यरत्न घोष नाम का एक विद्यार्थी अपने आप को बहुत शक्तिशाली समझता था। वह केशवराव के सामने आ खड़ा हुआ और कहने लगा, “जरा तुम्हारी ताकत तो देखें, मेरी भुजा पर मुक्के मारो।” केशवराव ने अपनी भुजा खोलकर कहा, “पहले आप।”
अच्छा मुझे चुनौती देता है ? देखता हूँ, ऐसा सोचकर दांत पीसकर अमूल्य घोष ने केशवराव की बाँह पर कसकर मुक्के जमाये। वे मारते ही चले गए, परन्तु केशवराव टस से मस नहीं हुए। अमूल्यरत्न ने अपनी हार मान ली। वे सदा के लिए केशवराव के प्रशंसक बन गये।
गंगाजी में तैरना उनका प्रिय व्यायाम था। एक बार एक बंगाली युवक उनसे स्पर्धा करने लगा। परन्तु कुछ देर बाद वह थक गया और डूबने लगा। केशवराव ने उसे सहारा देकर किनारे लगाया। उन्होंने उसे उसके घर पहुँचा दिया। केशवराव का परिचय पाकर घर के लोग चकित हुए। एक ‘मराठा’ भला इतना भद्र व्यवहार कर सकता है? .... इतनी उत्तम बंगाली बोल सकता है? इसका उन्हें आश्चर्य लगा। उस युवक का नाम चक्रवर्ती था। वह केशवराव का परममित्र बना।
केशवराव अनेक बार दक्षिणेश्वर, बेलूरमठ तथा शान्ति निकेतन गये। उनके प्रेरणा स्थल थे।
कलकाता में मौलवी लियाकत हुसैन नाम के एक नेता थे। एक विशेष प्रसंग द्वारा उनका केशवराव से परिचय हुआ। एक बार एक जनसभा में कोई वक्त भाषण देते हुए लोकमान्य तिलक जी के सम्बन्ध में उल्टा सीधा बोलने लगा। केशवराव से वह सहा नहीं गया। मंच पर कूद पड़े और उस वक्त को दो तमाचे जड़ दिये। उसके साथी जब केशवराव को मारने दौड़े, तब केशवराव ने उन्हें भी ठिकाने लगा दिया। मौलवी लियाकत हुसैन स्वयं केशवराव के पास पहुँचे और उनकी पाठ थपथपाते हुए कहा, “शाबाश! तुमने आज सच्चे तिलक भक्त जैसा काम किया। ”
डाक्टर बने
अनेक देशहित व लोक हित कार्यों में व्यस्त रहने के बाद भी केशवराव पढ़ाई में पीछे नहीं रहे। उन्हें अनेक असुविधाओं का सामना करना पड़ता था। उनके पास पर्याप्त पुस्तकें को नहीं थीं। वह दूसरों से पुस्तके माँग लेते थे। रात में वह एकाग्र होकर पढ़ते थे और सुबह लौटा देते थे। परीक्षा में उन्हें अच्छे अंक प्राप्त होते थे। उनकी अलौकिक बुद्धिमत्ता तथा अथवा परिश्रम करने की प्रवृत्ति देख उनके सहपाठी चकित होते थे। वे डाक्टर बने। उन्हें एल. एम. एण्ड एस. की उपाधि प्राप्त हुई।
कॉलेज के प्राचार्य डाक्टर मलिका उनसे विशेष स्नेह था। ब्रह्मदेश के एक बड़े अस्पताल में वे उन्हें अच्छी नौकरी दिलाना चाहते थे परन्तु केशवराव ने उन्हें विनम्र शब्दों में मना कर दिया।
केशवराव ने कहा– “महोदय, अपने देश की परिस्थिति सुधारने हेतु मेरे जैसे हजारों युवकों को अपना सर्वस्व न्योछावर करना होगा। नगरों में, ग्रामों में तथा वन्य प्रदेश में सैकडों आवश्यक कार्य कार्यकर्ताओं की बाट जोह रहे हैं। अतः मैंने नौकरी, विवाह इत्यादि न करने का प्रण लिया है। मैं आपका आशीर्वाद चाहता हूँ।”
व्यक्तिगत सुख को तिलांजलि
केशवराव हेडगेवार डाक्टर बनकर नागपुर लौटे। परन्तु न तो उन्होंने कहीं नौकरी की और न ही दवाखाना खोला। उनके भाई तथा अन्य सम्बन्धी उन्हें
धनोपार्जन हेतु कई सुझाव देते रहे। डाक्टरजी सबकी बातें विनम्रता से सुनते थे परन्तु उनका मुख्य ध्येय था –देश के लिए कार्य करना जिसमें वे पूरी निष्ठा व समर्पण से लगे रहते थे।
जब विवाह के सम्बन्ध में बार-बार प्रस्ताव आने लगे तब उन्होंने अपने चाचाजी को स्पष्ट शब्दों में पत्र लिखा– “मैंने आजन्म देश–सेवा का व्रत लिया है। मेरे जीवन में व्यक्तिगत सुख का महत्व है और न ही परिवार का। राष्ट्रकार्य करते समय कितनी ही बार कारागार में जाना होगा; और हो सकता है इसमें प्राण भी जाएँ ऐसी अवस्था में आप किसी भी प्रकार से मेरे विवाह के विषय में न सोचें।”
बड़े भाई महादेवराव की 1916 में मृत्यु हो गई थी। मंझलें भाई सीताराम जी सौम्य स्वभाव के थे। डॉक्टरजी पर उनका विशेष स्नेह था। वे विवाहित थे और पण्डिताई करते थे। जो भी रूखी सूखी जुटा पाते थे, उसे खाकर दोनों भाई प्रेम से रहते थे।

देश में निराशा
सन् 1914 में यूरोप में प्रथम महायुद्ध छिड़ा। प्रारंभ में अंग्रेजों की पराजय होती रही। क्रान्तिकारी देशभक्तों ने सोचा कि यही हमारी लिये सुनहरा अवसर है। देशभर में यदि क्रान्ति की ज्वाला फुट पड़ेगी तो सन् 1857 के पराभाव का परिमार्जन हो सकेगा।
डाक्टरजी अनुशीलन समिति के सदस्य थे। मध्यप्रदेश तथा विदर्भ का कार्य उन्हें सौंपा गया था। नागपुर मैं वैद्द भाऊरावजी कावरे उनके अभिन्न मित्र थे। दोनों मिलकर कार्य करने लगे। खोज–पररखकर युवकों को एकत्रित करना, उन्हें बन्दूक–पिस्तौल, बम आदि का निर्माण करने/चलाने की शिक्षा देना, उन्हें अन्य प्रान्तों में भेजकर शस्त्रास्त्र जुटाना, अंग्रेजों की छावनीयों में आने–जाने वाले शस्त्रों को हथियाना, उनका देशभर में वितरण करना, आदि विप्लवी कार्य सर्वत्र होने लगे।
सन् 1918 में प्रथम महायुद्ध समाप्त हुआ। अंग्रेजों की जीत हुई। भारत में नियुक्त अंग्रेज अधिकारी राक्षसी अत्याचार करने लगे। अमृतसर के जलियांवाला बाग में 13 अप्रैल, 1919 के दिन जनरल डायर के नेतृत्व में हजा़रों लोगों, जिनमें स्त्री–पुरुष, बच्चे–बूढ़े सभी थे, को निर्दयता से गोलियों से भून दिया गया। यह एक अत्यंत पाशविक जन संहार की घटना थी। इसी प्रकार, पंजाब के अनेक गाँवों तथा कस्बों में उन्होंने निरपराध लोगों को नारकीय यातनाएँ दीं।
सन् 1920 में लोकमान्य तिलक जी की मृत्यु हुई। गांधीजी की राजनीति के लिए अभी व्यापक रूप नहीं लिला था। क्रांतिकारी नेताओं को सर्वत्र अपयश ही दिखाई देने लगा।
नये मार्गों का शोध
डाक्टरजी निराश नहीं हुए। देश की उन्नति के नये मार्ग खोजने लगे। उन्होंने छोटी-बड़ी अनेक संस्थाएं चलाईं। हिन्दी साप्ताहिक पत्र ‘संकल्प’ चलाया, ‘स्वतंत्र्य’ नाम का मराठी दैनिक आरम्भ किया। ‘राष्ट्रीय मंडल’ , राष्ट्रीय उत्सव मंडल’ , वर्धा का ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक मंडल’ , ‘गणेशोत्सव मंडल’, ‘शिवाजी उत्सव मंडल’, ‘हिन्दू महासभा’, ‘तरुण’ ‘हिन्दूसभा’ ‘कांग्रेस’ आदि अनेक संस्थाओं के माध्यम से वे कार्य करते रहे। युवकों से सम्पर्क साधते हुए उनके हृदय में देश–प्रेम की भावना जगाना व देश सेवा हेतु प्रेरित करना– यही उनका प्रमुख कार्य था। उसे करने का कोई भी प्रसंग वे छोड़ते नहीं थे। विद्यार्थी के कार्यों में वे अवश्य सहभागी होते थे। सन् 1922 में अंग्रेजों ने गांधीजी को कारागार में डाल दिया। इस अवसर पर भाषण देते हुए डाक्टजी ने कहा– “यदि हम स्वयं अपने को गांधीजी के अनुयायी मानते हैं तो हमें उनके गुणों का अनुकरण करना चाहिये। स्वीकृत कार्य के लिए स्वार्थत्याग करने की प्रेरणा गांधीजी हमें देते हैं। दूसरी बात है, तत्वानुसार व्यवहार करना। इधर ‘महात्मा गांधी की जय’ कहना और उधर चैन की बंसी बजाना हमें शोभा नहीं देता। शान्ति की भाषा बोलकर हम अपनी दुर्बलता को ढकने का प्रयास न करें.... यदि हम महात्माजी के सच्चे अनुयायी है तो हमें अपने घर–द्वार पर तुलसीपत्र रखना होगा।”
सन् 1921 में जब असहयोग आन्दोलन चला, तब डॉ. हेडगेवार जी द्वारा बहुत उग्र भाषण दिए गये। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ा, उन पर मुकदमा चलाया और उन्हें 1 वर्ष की सश्रम कारावास की सजा दी।
स्वदेश चिंतन
कारागार में उनका व्यवहार बहुत धैर्यपूर्ण तथा संतुलित रहा। वे सदा प्रसन्नमुख रहते थे और दूसरों की सहायता तत्परता से करते थे। 12 जुलाई, 1922 को वे कारागार से मुक्त हुए।
कारावास में उन्हें शारीरिक विश्राम तो अवश्य प्राप्त हुआ, परन्तु उनका मन सदा चिंतनमग्न रहता था। वहाँ उन्होंने फिर से एक बार अपने देश के इतिहास का निरीक्षण किया। “हमारा धर्म, परंपरा संस्कृति श्रेष्ठ हैं। भारतीयों जैसे नीतिमान, तथा पराक्रमी लोग विश्व में कहीं नहीं है। हमारी संख्या बहुत बड़ी है। फिर भी हम मुठ्ठीभर अंग्रेज के गुलाम क्यों बनेहैं? इसके लिये न अंग्रेज जिम्मेवार हैं न मुसलमान। हम हिन्दू ही हमारे देश की दुर्दशा के मूल कारण हैं। हम स्वार्थी, असंगठित तथा अनुशासनहीन बन गये।
हमने सामाजिक भाव छोड़ दिया। शत्रुओं ने हमारे दुर्गुणों का लाभ उठाया। अतः हमें यह दुर्गुण दूर करने होंगे। हमें स्वाभिमानी, स्वावलंबी तथा सुसंगठित बनना होगा। यह कार्य कौन करेगा ? हम करेंगे। मैं करूँगा। अन्य सब कार्यो की अपेक्षा यह अधिक महत्वपूर्ण है। बाकी के सब कामों को छोड़, अब मैं इसी में जुट जाऊँगा।”
संघ की स्थापना
अनेक कार्यकर्ताओं के साथ उन्होंने विचार–विमर्श किया। कार्य महानता तो सब बखानते थे, परन्तु उसे कार्यान्वित करने के लिए किसी के पास न समय था, न धैर्य, और न कौशल। अतः डाक्टरजी ने स्वयं ही सच्चरित्र नवयुवकों को जुटाना प्रारंभ किया। सन् 1925 को विजयदशमी के शुभमुहूर्त पर उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। प्रारंभ में सब सदस्य सप्ताह में 1 दिन जुटते थे। चर्चा–भाषण आदि होते थे। फिर सालूबाई मोहिते के बाड़े में संघ ने शाखा का रूप अवधारणा किया।
धीरे-धीरे स्वयंसेवकों की संख्या बढ़ने लगी। नागपुर में अनेक स्थानों पर शाखाएँ प्रारंभ हुई। वहाँ न अंग्रेजों को गोलियाँ दी जाती थीं और न ही मुसलमानों को। वहाँ कहा जाता था– “अपनी मातृभूमि से प्रेम करो। जात –पात आदि का भेद मन में न लाते हुए भारत जननी के पुत्रों से प्रेम करो। स्वावलम्बी बनो। वीर बनो। दुनिया के दूसरे देशों की ओर मत ताको। त्यागपूर्वक अविरत, अथक परिश्रम करते हुए हिन्दुओं को संगठित करो। इस एक ही औषधि से देश के सब रोगों का निवारण होगा।”
सब आयु, स्तर तथा जाति के लोग संघ में आने लगे। डाक्टर जी उपदेश बहुत कम देते थे। उनका अपना व्यवहार ही बहुत बड़ा उपदेश था।

संघ के यश का रहस्य
संघ कार्यों के बारे में न समाचारपत्रों में ब्यानबाजी़ होती थी, न फोटो छपते थे। डाक्टरजी हर छोटे-बड़े स्वयंसेवक के साथ निजी संबंध रखते थे। कोई बीमार, निर्धन या दुखी हो तो वे उसके भाई, चाचा या पिता बन जाते थे।
एक बार डाक्टरजी अड़ेगाँव गए थे। वहाँ उनके मित्र के घर एक धार्मिक समारोह था। वहाँ देरी हुई। दूसरे दिन रविवार था। रविवार की सुबह होने वाली सैनिक क्षमता में उपस्थित रहना सब स्वयंसेवकों के लिए अनिवार्य था। अतः डाक्टरजी वहाँ से पैदल चल पड़े। वास्तव में डाक्टर जी को कभी भी अपने लिए सुख–सुविधा की चाह होती ही नहीं थी। वे सांसारिक मोह से अलिप्त व वीतरागी थे।
सन् 1930 में देशभर में अंग्रेजी के दमनकारी कानून तोड़ने का आन्दोलन चला। तदनुसार 22 जुलाई, 1930 को डॉ. जी ने यवतमाल जिले में सत्याग्रह किया। फलस्वरूप, उन्हें 9 मास की सश्रम कारावास की सजा मिली। कारागार में वे संघ का ही कार्य करते रहे। वहाँ पर उन्होंने अनेक लोगों को संघ का ध्येय, उसकी कार्य पद्धती व वर्तमान परिस्थितियों में उसके महत्व के बारे में पूर्ण जानकारी दी। अनेक लोग डॉक्टर जी से प्रेरित होकर संघ में आने लगे।
एक बार बाबू प्रयागराज जैन तथा महामना पं. मदन मोहन मालवीय ने उन्हें आर्थिक सहायता देने हेतु आग्रह किया। परन्तु डाक्टरजी ने उन्हें विनम्रतापूर्वक कहा– “मुझे धन नहीं, मनुष्य चाहिये।”
संघशिक्षा वर्गों में अपने खर्च से सैकड़ों की संख्या में स्वयंसेवकों आने लगे। इन्हीं सब बातों में संघकार्य के यस का रहस्य छुपा है। संघ के कार्यक्रम तथा उसकी प्रगति देख बड़े-बड़े लोग प्रभावित हुए। सन् 1934 के दिसंबर मास वर्धा में जमनालाल बजाज ने के बगीचे में संघ का शिविर लगा था। महात्मा गांधी उसे देखने गये। व्यवस्था, अनुशासन, परिश्रमशीलता, अपने खर्च से आना और रहना, भेदभावरहित वातावरण– यह सब देखकर गांधीजी अत्यधिक प्रभावित हुई।

चीर संदेश
अविरत परिश्रम के कारण डाक्टरजी बहुत बीमार हो गये। सन् 1940 में प्रतिवर्षानुसार नागपुर के संघ शिक्षा वर्ग लगा था। परन्तु डाक्टर जी उसमें उपस्थित न हो सके। स्वयंसेवक से मिलने के लिए हुए बहुत आतुर थे। अन्त में डाक्टरों ने उन्हें स्वयंसेवकों से मिलने की अनुमति दी।
1 जून, 1940 को प्रातः कुर्सी पर बैठे–बैठे डाक्टरजी ने सब स्वयंसेवकों को निहारा। शरीर से अस्वस्थ और दुर्बल परन्तु अंतःकरण में अलौकिक उमंग के साथ उन्होंने कहा– “प्रिय स्वयंसेवक बंधुओं, यह परम सौभाग्य का समय है। सम्पूर्ण हिन्दू राष्ट्र की प्रतिमा मैं यहां देख रहा हूँ।....... क्षमा करें, मैं न आपसे मिल सका और न आप की सेवा कर सका। आज सोचा, कम से कम आप को देखूँ तथा हो सके तो 4 शब्द कहूँ....... आप में और मुझे में इतना खिंचाव, लगाव क्यों है ? अनेक भेद होते हुए भी हमारे मन क्यों जुड़े हैं? यह संघ का जादू है। संग भाईचारा निर्माण करता है। सगे भाई झगड़ते हैं परन्तु हम कभी नहीं झगड़ेंगे । जिस कार्य को हमने यहाँ सीखा है, यह कभी न भूलें। प्रतिज्ञा कीजिए कि जबतक शरीर में प्राण हैं, मैं संघ को नहीं भूलूँगा। प्रतिरात्रि स्वयं से पूछिए– आज मैंने दिनभर में कौनसा और कितना संघ कार्य किया...।”
“मैं कभी स्वयंसेवक था, ऐसा कहने का अवसर कभी न आने दीजिये। सम्पूर्ण देशभर में हिन्दू भाइयों को हमें संगठित करना है। जब भारत संघमय बनेगा तब दुनिया का कोई देश उसे टेढ़ी नजर से नहीं देख पायेगा। तब सब समस्याएँ स्वत: समाप्त होंगी।”
डाक्टरजी का वह छोटा भाषण अत्यंत प्रभावशाली था।
महाप्रयाण
डाक्टरजी का स्वास्थ्य दिन–प्रतिदिन बिगड़ने लगा। स्वयंसेवक–गण रातदिन उनकी सेवा में जुटे रहे। परन्तु ईश्वर की इच्छा प्रतिकूल थी। उन्हें मेया अस्पताल में ले जाया गया। फिर वहाँ से नागपुर में नगर संघचालक घटाटेजी के बंगले पर लाया गया
आवश्यक चिकित्सा होती रही, परन्तु डाक्टरजी सब कुछ जाने गये।उन्होंने संघकार्य का भार माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य श्रीगुरुजी को सौंपा। डाक्टरजी ने जो अनगिनत निष्ठावान् एवम् कार्यकुशल कार्यकर्ता जुटाये थे, उनमें वे सर्वोपरि थे।
शुक्रवार, दिनांक 21 जून, 1940 को प्रातः उनकी प्राणतज्योति महाज्योति में विलीन हो गयी।
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