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Avinash Kumar answered this.

03 May 2022

गोस्वामी तुलसीदास
"पंद्रह सौ चौवन विषै, कालिंदी के तीर।
सावन शुक्ला सप्तमी, तुलसी धर्यो शरीर ॥"
डॉ. माता प्रसाद गुप्त ने तुलसीदास का जन्म सन् १५८९ में माना है। यह तिथिगणना से भी ठीक बैठती है तुलसीदासजी जिला बाँदा, ग्राम राजापुर निवासी सरयूपारीणब्राह्मण थे। उनके पिता का नाम आत्माराम दुबे और माता का नाम हुलसी था। अंतर्साक्ष्य के आधार पर अभुक्तमूल नक्षत्र में जन्म लेने से माता-पिता ने इन्हें त्याग दिया था। बाल्यावस्था घोर दरिद्रता में बीती। शूकर क्षेत्र में नरहरिदास गुरु से कथा सुनी और नाना पुराण-निगमागम का गंभीर अध्ययन कर गृहस्थ जीवन में उन्होंने प्रवेश किया। उन्हें अपनी पत्नी रत्नावली से प्रगाढ़ प्रेम था। प्रेम की इसी पराकाष्ठा के कारण इन्हें ससुराल जाकर अपमानित होना पड़ा था। फलतः उनमें वैराग्य का उदय हुआ-
‘अस्थि चर्ममय देह मम, तामें ऐसी प्रीति ।
होति जु तब भगवान में, होत न तब भवभीति ॥”
तुलसी ने अनेक तीर्थस्थानों का दर्शन किया, किंतु चित्रकूट में उनका मन विशेष रूप से रमा। उन्होंने सन् १६३९ में विश्व-वरेण्य "रामचरित मानस" की रचना प्रारंभ की।
इकहत्तर वर्ष की अवस्था में कवि ने "रामचरित मानस" का प्रणयन किया और अपने जीवन के संपूर्ण अनुभवों को अपनी प्रतिभा के सहारे मानस में उड़ेल दिया। तत्पश्चात्
भगवान राम के दरबार में एक प्रार्थना-पत्र (विनयपत्रिका) लिखा। उनकी कृतियाँ हैं-
१. रामायण, २. विनयपत्रिका, ३. कवितावली, ४. राम सतसई, ५. गीतावली,६. दोहावली, ७. बरवै रामायण, ८. राम लला नहछू, ९. पार्वती-मंगल, १०. कुंडलिया
रामायण, ११. हनुमान बाहुक-और अंत में गंगा-तट पर प्राण-त्याग किया-
"संवत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।
सावन शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर ॥"
तुलसी ने अपने उपास्य देव श्रीराम में सौंदर्य और सदाचार के साथ लोकरक्षा की
भावना का पूर्ण निर्वाह किया। तुलसीदासजी ने भगवान् का वह रूप उपस्थित किया जिसमें निराकार होते हुए भी साकार होने की अपूर्व सामर्थ्य थी। वे सर्वशक्तिमान और
भक्तों के रक्षक थे।
तुलसीदास ने जो कुछ लिखा है, स्वांतः सुखाय है। "उपदेश देने की अभिलाषा प्रेरणा न होने के कारण स्थायित्व नहीं होता।" डॉ. श्यामसुंदर दास की यह उक्ति पूर्णरूपेण सत्य है। तुलसीदास की रचना में सीधे उनके हृदय से निकले हुए भाव हैं। इसी कारण तुलसी का काव्य उत्कृष्ट बन पड़ा है।

हम कह सकते हैं कि तुलसी ने अपने काव्य में तत्कालीन सामाजिक, पारिवारि राजनीतिक, धार्मिक : सभी परिस्थितियों का ज्ञान विभिन्न शैलियों और धाराओं
माध्यम से कराया। भक्ति, ज्ञान, वैराग्य में सामंजस्य स्थापित कर उन्होंने अव्यवस्ि लोकधर्म की मर्यादा फिर से स्थापित की, साथ ही निर्गुण और सगुण के भेदभाव को
दूर किया।

गोस्वामीजी के विभिन्न ग्रंथों में जिस प्रकार से भाषा-भेद है उसी प्रकार छंद भेद भी है। तुलसी ने समय की प्रचलित समस्त शैलियों को अपनाया है। उन्होंने कवि सवैया, छप्पय, सोरठा, बरवै, दोहा, चौपाई, पद आदि सभी छंदों का प्रयोग विभि रचनाओं में किया है। मानस में जायसी की भाँति दोहे-चौपाई के क्रम के साथ हरिगीतिका जैसे लंबे छंदों तथा सोरठा जैसे छोटे छंदों का प्रयोग भी किया है।

उनके काव्य में ओज, माधुर्य और प्रसाद- तीनों गुणों का समावेश है। उन माधुर्य-भावना का प्रवाह विद्यापति की गीत-पद्धति से अपनाए गए पदों में विशेष रूप से
प्राप्त होता है।

उनके काव्य में अलंकारों का प्रयोग स्वाभाविक है। प्रयुक्त अलंकार अर्थ और भाव में उत्कृष्टता लानेवाले हैं। वे केशव के अलंकारों की भाँति भार-स्वरूप नहीं हैं, जिनके कारण कविता का कामिनी-कलेवर सौंदर्य नष्ट हो जाए, बल्कि कविता का सौंदर्य बढ़ानेवाले हैं। रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा और उपमा व रूपक का संकर तथा सांगरूपक का प्रयोग अधिक हुआ है। शब्दालंकार तथा अर्थालंकार, दोनों का प्रयोग श्लिष्ट और प्रभावोत्पादक है।

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