संविधान से ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द नहीं हटाए जाएंगे: लोकतंत्र की असली आत्मा की रक्षा
126 Jul 2025
संविधान से ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द नहीं हटाए जाएंगे: लोकतंत्र की असली आत्मा की रक्षा
🔸 प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’: क्या है विवाद?
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में “समाजवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्द 1976 में 42वें संविधान संशोधन के तहत जोड़े गए थे। यह कदम इंदिरा गांधी सरकार द्वारा आपातकाल के दौरान उठाया गया था।
इन शब्दों को संविधान में जोड़े जाने के बाद से ही कुछ समूहों और संगठनों द्वारा इन्हें हटाने की मांग की जाती रही है। उनका तर्क है कि संविधान निर्माताओं ने इन्हें मूल रूप से नहीं जोड़ा था।
लेकिन हाल ही में भारत सरकार और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने स्पष्ट किया है कि इन शब्दों को संविधान से हटाने की कोई योजना नहीं है।
🔸 संविधान की आत्मा: क्या है ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’?
👉 समाजवाद का अर्थ:
भारत में समाजवाद का मतलब है —
संसाधनों का समान वितरण,
आर्थिक न्याय,
गरीबी हटाना,
सभी वर्गों को समान अवसर देना।
यह समाज के कमजोर वर्गों के लिए सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करता है। भारतीय संविधान में इसे एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में देखा गया है।
👉 धर्मनिरपेक्षता का अर्थ:
भारत की धर्मनिरपेक्षता का मतलब “सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान” है। भारत कोई धार्मिक राष्ट्र नहीं है और न ही किसी एक धर्म को प्राथमिकता देता है।
सरकार न तो किसी धर्म को बढ़ावा देती है और न ही किसी धर्म का दमन करती है। सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार है।
🔸 ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: कब और क्यों जोड़े गए यह शब्द?
1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा प्रस्तावना में ये दो शब्द जोड़े गए:
“हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए...”
यह संशोधन ऐसे समय में हुआ जब देश में आपातकाल लागू था और कई मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था। इस संशोधन को लेकर विवाद आज भी जारी है, लेकिन यह भी सच है कि भारत का मूल स्वभाव हमेशा से धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक न्याय वाला रहा है।
🔸 हालिया बहस: क्यों उठा फिर से यह मुद्दा?
हाल ही में एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थी जिसमें मांग की गई कि प्रस्तावना से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द हटाए जाएं।
याचिकाकर्ता का तर्क था कि संविधान के प्रारूप में ये शब्द नहीं थे और इन्हें आपातकाल के समय जोड़ना अलोकतांत्रिक था।
लेकिन इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि:
"इन शब्दों को हटाने का कोई औचित्य नहीं है और यह संविधान की मूल भावना के अनुरूप हैं।"
🔸 सरकार का रुख: हटाने का कोई विचार नहीं
भारत सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर कर स्पष्ट किया कि
“प्रस्तावना से ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्दों को हटाने का कोई प्रस्ताव या मंशा नहीं है।”
यह बयान उन सभी अटकलों पर विराम लगाता है जो संविधान की मूल भावना से छेड़छाड़ की आशंका व्यक्त कर रहे थे।
🔸 विशेषज्ञों की राय: क्यों जरूरी हैं ये शब्द?
भारत में संवैधानिक विशेषज्ञों, शिक्षाविदों और न्यायविदों की राय में:
✅ समाजवाद – गरीबों और वंचितों के लिए सामाजिक सुरक्षा और समान अवसर की गारंटी देता है।
✅ धर्मनिरपेक्षता – भारत की बहुधार्मिक और विविध संस्कृति को बनाए रखने में सहायक है।
✅ ये दोनों शब्द – संविधान की “बुनियादी संरचना” (Basic Structure Doctrine) का हिस्सा हैं, जिन्हें कोई भी संशोधन खत्म नहीं कर सकता।
🔸 विपक्ष और जनभावना
बहुसंख्यक नागरिक और कई राजनीतिक दल इन शब्दों को हटाने के विरुद्ध हैं।
उनका मानना है कि अगर समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को हटाया गया तो इससे:
भारत की धर्मनिरपेक्ष पहचान को धक्का पहुंचेगा,
कमजोर वर्गों की सुरक्षा को खतरा होगा,
और सामाजिक असमानता बढ़ेगी।
🔸 निष्कर्ष: संविधान की रक्षा हर नागरिक का कर्तव्य
भारत का संविधान केवल एक कानूनी दस्तावेज नहीं, बल्कि देश के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक मूल्य का आईना है।
‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ जैसे शब्द न केवल इसकी पहचान हैं, बल्कि इसके मूल उद्देश्य को दर्शाते हैं।
इन शब्दों को हटाने का कोई तर्क न केवल अव्यवहारिक है बल्कि भारतीय लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के विरुद्ध है।
इसलिए, यह जरूरी है कि हम इन मूल्यों की रक्षा करें, उन्हें समझें और आने वाली पीढ़ियों तक इनके महत्व को पहुँचाएं।
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